• पूर्व जन्म अथवा समय में किया हुआ कर्म ही भाग्य कहलाता हैं, इसलिए पुरुषार्थ किए बिना भाग्य का निर्माण नहीं हो सकता....

    ॥ भाग्य और पुरुषार्थ के भेद ॥

    संतो के मुख से और शास्त्रों में भी पढ़ा है कि पुरूषार्थ से ही हमारा भाग्य बनता है, क्या हमने इस सत्य को वास्तविक रूप में समझा भी हैं?

    हमारे पूर्व जीवन अथवा समय (इस क्षण में जो बीता है उसमें भी) किए हुए कर्मों के फलों को ही "भाग्य" कहते हैं, और वर्तमान में जो हम कर्म कर रहे हैं उनको "पुरूषार्थ" कहते हैं।
    हम प्रत्येक क्षण पिछले भाग्य को भोगते हैं और प्रत्येक क्षण पुरूषार्थ भी करते हैं।

    हमारे ’मन’ के द्वारा जो क्रिया होती है वह पुरूषार्थ के रूप में हमारे स्वयं के अधीन होती है।
    जबकि हमारे शरीर की क्रिया प्रकृति के गुणों के द्वारा स्वतः ही होती है, लेकिन मिथ्या अहंकार के कारण हम उसी को पुरूषार्थ समझ लेते हैं, जबकि मन की क्रिया ही हमारे पुरूषार्थ द्वारा होती है। यानी हर क्रिया के पीछे हमारे मन की अच्छी/बुरी भावना ही हमारा पुरूषार्थ है ! और यही अच्छी/बुरी भावना ही हमारा अच्छा या बुरा भाग्य बनाती है

    हमारे द्वारा पूर्व जीवन अथवा समय में किया जा चुका पुरूषार्थ ही वर्तमान समय में हमारे भाग्य के रूप में परिवर्तित हुआ है, और वर्तमान समय का पुरूषार्थ हमारे भविष्य में भाग्य के रूप में परिवर्तित होगा।
    💐 🍂 🌼 🌱

    भगवान् सबको समान दृष्टि से देखते हैं !
    श्रीमद्भागवत महापुराण, सप्तम स्कन्ध, अध्याय 1.

    शरीर को "मैं" मान लेने से कि ‘यह शरीर ही मैं हूँ’, एसा गलत अभिमान हो जाने से उस शरीर के वध से प्राणियों को अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान् में तो जीवों के समान ऐसा अभिमान है नहीं; भगवान् का भोतिक शरीर नहीं है, क्योंकि वे तो सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं।
    भगवान् के द्वारा हिंसा होना कैसे माना जासकता है ! अर्थात भगवान जो पापीयों को दण्ड देते हैं— वह उनके कल्याण के लिये ही देते हैं, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं देते । और जब वे भक्तों की प्रार्थना को स्वीकार करते हैं तो भी उनके कल्याण को लेकर ही करते हैं। वे अपनी स्तुति अथवा निंदा से प्रभावित नहीं होते। उनमें अभिमान/अहंकार, अपना पराया का भाव नहीं है। इस लिये वे सबको समान दृष्टि से देखते हैं !

    यन्-निबद्धोऽभिमानोऽयं तद् वधात् प्राणिनां वधः ।
    तथा न यस्य कैवल्याद् अभिमानोऽखिलात्मनः ।
    परस्य दम कर्तुर् हि हिंसा केनास्य कल्प्यते ॥ २४ ॥
    पूर्व जन्म अथवा समय में किया हुआ कर्म ही भाग्य कहलाता हैं, इसलिए पुरुषार्थ किए बिना भाग्य का निर्माण नहीं हो सकता.... ॥ भाग्य और पुरुषार्थ के भेद ॥ संतो के मुख से और शास्त्रों में भी पढ़ा है कि पुरूषार्थ से ही हमारा भाग्य बनता है, क्या हमने इस सत्य को वास्तविक रूप में समझा भी हैं? हमारे पूर्व जीवन अथवा समय (इस क्षण में जो बीता है उसमें भी) किए हुए कर्मों के फलों को ही "भाग्य" कहते हैं, और वर्तमान में जो हम कर्म कर रहे हैं उनको "पुरूषार्थ" कहते हैं। हम प्रत्येक क्षण पिछले भाग्य को भोगते हैं और प्रत्येक क्षण पुरूषार्थ भी करते हैं। हमारे ’मन’ के द्वारा जो क्रिया होती है वह पुरूषार्थ के रूप में हमारे स्वयं के अधीन होती है। जबकि हमारे शरीर की क्रिया प्रकृति के गुणों के द्वारा स्वतः ही होती है, लेकिन मिथ्या अहंकार के कारण हम उसी को पुरूषार्थ समझ लेते हैं, जबकि मन की क्रिया ही हमारे पुरूषार्थ द्वारा होती है। यानी हर क्रिया के पीछे हमारे मन की अच्छी/बुरी भावना ही हमारा पुरूषार्थ है ! और यही अच्छी/बुरी भावना ही हमारा अच्छा या बुरा भाग्य बनाती है हमारे द्वारा पूर्व जीवन अथवा समय में किया जा चुका पुरूषार्थ ही वर्तमान समय में हमारे भाग्य के रूप में परिवर्तित हुआ है, और वर्तमान समय का पुरूषार्थ हमारे भविष्य में भाग्य के रूप में परिवर्तित होगा। 💐 🍂 🌼 🌱 भगवान् सबको समान दृष्टि से देखते हैं ! श्रीमद्भागवत महापुराण, सप्तम स्कन्ध, अध्याय 1. शरीर को "मैं" मान लेने से कि ‘यह शरीर ही मैं हूँ’, एसा गलत अभिमान हो जाने से उस शरीर के वध से प्राणियों को अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान् में तो जीवों के समान ऐसा अभिमान है नहीं; भगवान् का भोतिक शरीर नहीं है, क्योंकि वे तो सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं। भगवान् के द्वारा हिंसा होना कैसे माना जासकता है ! अर्थात भगवान जो पापीयों को दण्ड देते हैं— वह उनके कल्याण के लिये ही देते हैं, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं देते । और जब वे भक्तों की प्रार्थना को स्वीकार करते हैं तो भी उनके कल्याण को लेकर ही करते हैं। वे अपनी स्तुति अथवा निंदा से प्रभावित नहीं होते। उनमें अभिमान/अहंकार, अपना पराया का भाव नहीं है। इस लिये वे सबको समान दृष्टि से देखते हैं ! यन्-निबद्धोऽभिमानोऽयं तद् वधात् प्राणिनां वधः । तथा न यस्य कैवल्याद् अभिमानोऽखिलात्मनः । परस्य दम कर्तुर् हि हिंसा केनास्य कल्प्यते ॥ २४ ॥
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  • मातेश्वरी जी के अनमोल महावाक्य - ओम् शिवोहम्, हम सो सो हम इन शब्दों का यथार्थ अर्थ

    ओम् शान्ति, यह जो शब्द उच्चारण करते हैं हम सो, सो हम, शिवोहम्, अहम् आत्मा सो परमात्मा अब यह महावाक्य कौन उच्चारण करते हैं और इन शब्दों का यथार्थ अर्थ क्या है? जब ओम् अक्षर कहते हैं तो ओम् का अर्थ है मैं आत्मा शान्त स्वरूप हूँ, यह निश्चय होने से फिर मैं आत्मा सो परमात्मा हूँ, यह अक्षर नहीं कह सकते हैं। फिर तो ऐसे ही समझते हैं कि मैं आत्मा परमात्मा की सन्तान हूँ, तो यह ओम् शब्द कहना आत्माओं का अधिकार है। फिर जब हम सो, सो हम शब्द कहते हैं, तो उस शब्द का अर्थ है हम सो पूज्य, सो अब पुजारी बने। हम सो पूज्य, अब यह शब्द भी आत्मा ही कह सकती है। यह जो मनुष्य कहते हैं अहम् आत्मा सो परमात्मा, अब यह शब्द सिर्फ परमात्मा ही कह सकता है क्योंकि वही एक आत्मा, परम आत्मा है, फिर यह जो शिवोहम् शब्द कहते हैं वो भी परमात्मा कह सकते हैं क्योंकि वो शिव हैं। तो इन शब्दों के अर्थ को भी तब जानते हैं जब परमात्मा आकर यह नॉलेज देते हैं, बाकी और धर्म वालों को, क्रिश्चियन आदि को यह मालूम नहीं कि हम सो पोप बनूँगा। उन्हों को यह नॉलेज ही नहीं है। अभी हमको यह नॉलेज मिली है कि हम सो देवता बनेंगे, हमारे सामने देवताओं का यादगार चित्र है और साथ-साथ उन्हों के जीवन चरित्र हिस्ट्री, गीता भागवत सामने हैं क्योंकि हम आदि से अन्त तक सारे कल्प के चक्र में हैं और वो धर्म पितायें जब आते हैं तो वो कल्प के बीच में आते हैं, इसलिए वे हम सो शब्द नहीं कह सकते, ओम् शब्द कह सकते हैं। अच्छा - ओम् शान्ति।
    मातेश्वरी जी के अनमोल महावाक्य - ओम् शिवोहम्, हम सो सो हम इन शब्दों का यथार्थ अर्थ ओम् शान्ति, यह जो शब्द उच्चारण करते हैं हम सो, सो हम, शिवोहम्, अहम् आत्मा सो परमात्मा अब यह महावाक्य कौन उच्चारण करते हैं और इन शब्दों का यथार्थ अर्थ क्या है? जब ओम् अक्षर कहते हैं तो ओम् का अर्थ है मैं आत्मा शान्त स्वरूप हूँ, यह निश्चय होने से फिर मैं आत्मा सो परमात्मा हूँ, यह अक्षर नहीं कह सकते हैं। फिर तो ऐसे ही समझते हैं कि मैं आत्मा परमात्मा की सन्तान हूँ, तो यह ओम् शब्द कहना आत्माओं का अधिकार है। फिर जब हम सो, सो हम शब्द कहते हैं, तो उस शब्द का अर्थ है हम सो पूज्य, सो अब पुजारी बने। हम सो पूज्य, अब यह शब्द भी आत्मा ही कह सकती है। यह जो मनुष्य कहते हैं अहम् आत्मा सो परमात्मा, अब यह शब्द सिर्फ परमात्मा ही कह सकता है क्योंकि वही एक आत्मा, परम आत्मा है, फिर यह जो शिवोहम् शब्द कहते हैं वो भी परमात्मा कह सकते हैं क्योंकि वो शिव हैं। तो इन शब्दों के अर्थ को भी तब जानते हैं जब परमात्मा आकर यह नॉलेज देते हैं, बाकी और धर्म वालों को, क्रिश्चियन आदि को यह मालूम नहीं कि हम सो पोप बनूँगा। उन्हों को यह नॉलेज ही नहीं है। अभी हमको यह नॉलेज मिली है कि हम सो देवता बनेंगे, हमारे सामने देवताओं का यादगार चित्र है और साथ-साथ उन्हों के जीवन चरित्र हिस्ट्री, गीता भागवत सामने हैं क्योंकि हम आदि से अन्त तक सारे कल्प के चक्र में हैं और वो धर्म पितायें जब आते हैं तो वो कल्प के बीच में आते हैं, इसलिए वे हम सो शब्द नहीं कह सकते, ओम् शब्द कह सकते हैं। अच्छा - ओम् शान्ति।
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  • A big and open heart embraces everyone unconditionally. If your heart is wide and deep, everyone will naturally feel safe & free meeting you. Such a generous heart naturally attracts abundance.
    A big and open heart embraces everyone unconditionally. If your heart is wide and deep, everyone will naturally feel safe & free meeting you. Such a generous heart naturally attracts abundance.
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  • Memory..
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  • #Anurag is 16 Now!! Wish you all the best on your special birthday!! Great to meet all family members..
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  • Happy birthday Chora. All the bestfrom all of us.
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  • Thank you Royce with your amazing handwriting… but you spelled it “hope” wrong.
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